दस्तावेज़ः एक भूला बिसरा क्रांतिकारी शहीद गेंदालाल दीक्षित और उसके साहसिक कारनामे

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 29-11-2022
शहीद गेंदालाल दीक्षित
शहीद गेंदालाल दीक्षित

 

ज़ाहिद ख़ान

30 नवम्बर/अमर शहीद गेंदालाल दीक्षित की जयंती

देश की आज़ादी कई धाराओं, संगठन और व्यक्तियों की अथक कोशिशों और क़ुर्बानियों का नतीजा है. ग़ुलाम भारत में महात्मा गांधी के अंहिसक आंदोलन के अलावा एक क्रांतिकारी धारा भी थी, जिससे जुड़े क्रांतिकारियों को लगता था कि अंग्रेज़ हुक़्मरानों के आगे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाने और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों से देश को आज़ादी नहीं मिलने वाली, इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना होगा और ज़रूरत के मुताबिक़ हर मुमकिन क़ुर्बानी भी देनी होगी.

क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित ऐसे ही एक जांबाज़ क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने साहसिक कारनामों से उस वक़्त की अंग्रेज़ी हुक़ूमत को हिलाकर रख दिया था. गेंदालाल दीक्षित, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ के कमांडर-इन-चीफ़ थे और एक वक़्त उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे क्रांतिकारियों रासबिहारी बोस, विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराभा, शचीन्द्रनाथ सान्याल, प्रताप सिंह बारहठ, बाघा जतिन आदि के साथ मिलकर, ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन अपने ही एक साथी की ग़द्दारी की वजह से उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया और अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के इल्ज़ाम में फ़ांसी पर चढ़ा दिए गए,
 
सैकड़ों को काला पानी जैसे यातनागृहों में कठोर सज़ाएं हुईं. हज़ारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार के दमन का सामना करना पड़ा. बावजूद इसके गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन के अंतिम समय तक मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे.

30 नवम्बर,1890 को चंबल घाटी के भदावर राज्य आगरा के अंतर्गत बटेश्वर के पास एक छोटे से गांव मई में जन्मे महान क्रांतिकारी पं. गेंदालाल दीक्षित ने साल 1916 में चंबल के बीहड़ में ‘मातृवेदी’ दल की स्थापना की थी. ‘मातृवेदी’ दल से पहले उन्होंने एक और संगठन ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया था और इस संगठन का भी काम नौजवानों में देश प्रेम की भावना को जागृत करना और उन्हें क्रांति के लिए तैयार करना था.

आगे चलकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद और बागी सरदार पंचम सिंह के साथ मिलकर, उन्होंने ‘मातृवेदी’ दल बनाया. जिसमें बाद में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, देवनारायण भारतीय, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, शिवचरण लाल शर्मा भी शामिल हुए. 'मातृवेदी' दल ने ही राम प्रसाद 'बिस्मिल' को सैन्य प्रशिक्षण दिया था. बिस्मिल ने गेंदालाल दीक्षित के प्रमुख सहायक कार्यकर्ता के तौर पर भी काम किया. गेंदालाल दीक्षित का कल्पनाशील नेतृत्व और अद्भुत सांगठनिक क्षमता का ही परिणाम था कि एक समय ‘मातृवेदी’ दल में दो हज़ार पैदल सैनिक के अलावा पांच सौ घुड़सवार थे.

इसके अलावा संयुक्त प्रांत के 40 जिलों में 4 हज़ार से ज़्यादा हथियारबंद नौजवानों की टोली थी. दल के ख़ज़ाने में आठ लाख रुपए थे. सबसे दिलचस्प बात यह है कि ‘मातृवेदी’ दल की केन्द्रीय समिति में चंबल के 30 बागी सरदारों को भी जगह मिली हुई थी. क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने इस संगठन की तारीफ़ करते हुए लिखा था,‘‘संयुक्त प्रांत का संगठन भारत के सब प्रांतों से उत्तम, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था. क्रांति के लिए जितने अच्छे रूप में इस प्रांत ने तैयारी कर ली थी, उतनी किसी अन्य प्रांत ने नहीं की थी.’’ आगे चलकर ‘मातृवेदी’, संयुक्त प्रांत के सबसे बड़े गुप्त क्रांतिकारी संगठन के रूप में विख्यात हुआ. संगठन में शामिल सैनिकों को देश के लिए मर मिटने की शपथ लेना पड़ती थी.

'भाइयों आगे बढ़ो, फ़ोर्ट विलियम छीन लो

जितने भी अंग्रेज़ सारे, उनको एक—एक बीन लो.'

यह नारा क्रांतिकारियों में एक नया जोश जगाता था. महान क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित की छोटी सी ज़िंदगानी काफ़ी तूफ़ानी और रोमांचकारी रही. ‘मातृवेदी’ संगठन से नौजवानों को जोड़ने के लिए उन्होंने संयुक्त प्रांत के कई शहरों का दौरा किया.

देशी सामंतों और सरमायेदारों के यहां डाका डालकर, संगठन के लिए उन्होंने ज़रूरी पैसा इकट्ठा किया. डाका डालते समय हमेशा इस बात का ख़याल रखा जाता कि औरतों और बच्चों को किसी तरह की तकलीफ़ और उनके साथ गलत बर्ताव न हो. देश के अलग—अलग हिस्सों में आज़ादी के लिए काम कर रहे अंतर प्रांतीय संगठनों और उनके नेताओं में जिसमें गेंदालाल दीक्षित भी शामिल थे, ने आख़िरकार क्रांति की एक तारीख़ 21 फरवरी, 1915 मुकर्रर की. इस क्रांति में राजस्थान के ख़ारवा रियासत से 10 हज़ार सैनिकों का साथ मिलना भी तय हो गया था.

लेकिन एक भेदिये की वजह से क्रांति की सारी योजना नाकाम हो गई. तयशुदा तारीख़ से दो दिन पहले पंजाब पुलिस को इस बग़ावत का मालूम चल गया. अंग्रेज़ हुक़ूमत ने दमन चक्र चलाते हुए कई क्रांतिकारियों की धरपकड़ की. उन्हें कठोर सज़ाएं सुनाने से लेकर, फ़ांसी पर लटका दिया गया.

इस नाकाम क्रांति के बाद भी गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी. वो सिंगापुर गए और गदर पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर, फिर ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ रणनीति बनाई. बर्मा और संघाई जाकर वहां काम कर रहे क्रांतिकारी संगठनों से देश की आज़ादी के लिए समर्थन मांगा. 'मातृवेदी' को नये सिरे से खड़ा करने के लिए काफ़ी जद्दोजहद की, लेकिन कामयाब नहीं हुए. गेंदालाल दीक्षित के जिस्म में जब तलक जान रही,आज़ादी का ख़्वाब देखते रहे.

अंग्रेज़ हुक़ूमत के शिकंजे से एक बार छूटे, तो फिर उनके हाथ नहीं आए. महज़ तीस साल की छोटी सी उम्र में 21 दिसम्बर, 1920 को गेंदालाल दीक्षित की शहादत हुई. उनकी शहादत के कई साल बाद तक अंग्रेज़ हुक़ूमत उनके कारनामों से ख़ौफ़ज़दा रही. सरकार को यक़ीन ही नहीं था कि गेंदालाल दीक्षित अब इस दुनिया में नहीं हैं.